रस्म ए उल्फत भी बार -बार शिद्दत से
रस्म ए उल्फत भी बार -बार शिद्दत से
हमने कभी निभाया था
और उसने हर दिन इक नया ज़ख्म दे,
नए रंगरूटों के साथ
मिल कर हमला करवाया था !
ऐलान _ए _जंग हम क्या करते ,
अब तो प्रेम ही दफ़न हुआ ! हमारे नसीब से !
हम कुर्वतों में कब तक दिल बहलाते
उस ब्राह्मणी ने तो सात फेरों का
दर्द ए चिराग गैर के लिए
दो दिलों की मोहब्बत
का मिटवाया था !!
काव्य कटाक्ष