रतजगे
सरक के तकिये ने ख्वाब जो तोडा,
नाता करवटों ने बिस्तर से जा जोड़ा,
बेवज़ह नाराज़ और लौटती ही नहीं,
क्यों मैंने ठीकरा नींद के सर फोड़ा,
बहलाए से भी है कि ये बहलता नहीं,
दिल तो बना बैठा है अड़ियल घोडा,
रतजगों से नहीं तन्हाइयों से परेशां हूँ,
ख़्वाबों में देख के मिले आराम थोड़ा,
जलन ऐसी जैसे सुलग रहा हूँ अंदर,
दर्द भी फिर रहा करके सीना चौड़ा,
चादर की सिलवटें पूछती है मुझसे,
क्या बिगाड़ा था जो यूँ तोडा-मरोड़ा,
‘दक्ष’ निबाह हो अब स्याह अंधेरों से,
उजालों ने साथ अपना कब से छोड़ा,
विकास शर्मा ‘दक्ष’
ठीकरा फोड़ना = किसी पर सब इल्जाम देना ; स्याह = काले