रखता हूँ
हसरतें ना आसमान की ना ख़्वाबों में ऊँचा मकान रखता हूँ
नज़रे बस रहती जमीं पे मेरी मैं किरदार ज़रा आसान रखता हूँ
मजहब छोड़ तुम भी करने लगोगे इश्क हर चेहरे से मुझे पढ़
मैं जाति धर्म से ऊपर उठ हमेशा खुद में इक इंसान रखता हूँ
तुम्हें लगता तुम कहते क़ाफ़िर मुझे तो मान लूँगा फिर कभी
म’गर मैं मंगलवार , शिवरात्रि औ दिल से रमज़ान रखता हूँ
हाँ बेशक गुज़रे कल से मिले ज़ख्म दर्द अश्क जमा करता यार
पर मैं हर वक़्त इन लबों पे बस मुस्कुराहट की दुकान रखता हूँ
दिखने में पता नहीं किस क़दीम जमाने का शख्स हूँ मैं दोस्तों
लेकिन सोच को मैं हमेशा वक़्त के हिसाब से जवान रखता हूँ
जितने आए दिल लगाने मुझसे उसने तोड़ा ही मुझे हर वक़्त
मसलन अब सबसे दूर रख क़ल्ब को बहुत सुनसान रखता हूँ
जो भी है पास मेरे अपने उन्हें दिल से चाहता मैं हमेशा
इक यही है जिनपे दर्द में भी हँसते हुए हक से गुमान रखता हूँ
उस इक जां को खबर ही नहीं कितना मुहब्बत है उससे कामिल
वो इकलौती बहन है मेरी जिसके मुस्कुराने पे सारा जहान रखता हूँ
@कुनु