रंजोग़म से मिले ख़ुशी से मिले
रंजोग़म से मिले ख़ुशी से मिले
तज़रबे यूँ ही ज़िन्दगी से मिले
इक दफ़अ हम जो ज़िन्दगी से मिले
यूँ लगा जैसे अजनबी से मिले
वो ही जीने का अब सहारा हैं
जो भी इन’आम आशिक़ी से मिले
हंस के करते थे बात जो कल तक
आज वो हमसे बेरुख़ी से मिले
दोस्ती किस तरह निभाएँ हम
ज़ख़्म जब रोज़ दोस्ती से मिले
हम समझते थे ख़ार को दुश्मन
ज़ख्म फूलों की दोस्ती से मिले
इन अंधेरों का कुछ वजूद नहीं
रोशनी की हुई कमी से मिले
शक़ हमें है कि वो लुटेरे हैं
लोग जो हमसे सादगी से मिले
आइना कल के रोज़ देखा था
हम भी ‘आनन्द’ अजनबी से मिले
– डॉ आनन्द किशोर