रंग नहीं ये…नासूर का मर्म है
रंग नहीं ये…नासूर का मर्म है
एक रंग चढ़ा है दिल पर
एक तन पर चढ़ गया ।
मिटाना चाहा जितना
उतना ही देह पर बढ़ गया ।
दिल पर चढ़ा है जो रंग
यूं ही अपने आप ही ढल गया ।
लेकिन चढ़ गया है जो तन पर
उतारे न उतरा……और गहरा गहरा गया ।
घायल मन तो हुआ नहीं
तन घायल ये कर गया ।
जख़्म नासूर देकर…
ये रंग…वहीं पर ही मर्म बन गया ।
दर्द सहती …
रोज़ पीड़ा से हूँ गुज़र रही ।
घायल रोज़ होती …
रोज़ शैय्या पर हूँ चढ़ रही ।
क्या कहूं …किस हाल में
जिंदगी बसर कर रही हूँ मैं ।
यूँ ही रोज़ जीते-जीते
अंगारों पर चल रही हूँ मैं ।
दिल पर चढ़े रंग का दर्द
न देखा मेरा… सिर्फ गम दिया ।
सामने जो था… उसी को देख
अपना-अपना मत दिया ।
बना दिया मुझे…
पत्थर की वो खंडित मूरत
जिसे देख…बिन सोचे समझे
मानुष भी पीछे हट गया ।
तेरी इस बेवफाई ने
दिया सिर्फ और सिर्फ कलुष रंग
क्या तुझको हांसिल हुआ
मुझे यूँ बदनाम कर ??
बदनाम कर तू मुझे
अंजान बनकर चला गया ।
रंग जो फैंका है मुझ पर
कालिख बन नासूर में वो बदल गया ।
मन पर चढ़ा था जो रंग
ज़र्रा-ज़र्रा…वो तो उतर गया ।
तन पर चढ़ा था जो रंग
वहीं सिमटकर मर्म बन गया ।
जीना है अब तो इसके साथ
नासूर बन जो तन पर रह गया ।
मरहम से जख़्म तो सूखा पर
निशान ताउम्र तन पर रह गया ।