रंग-ए-दुनिया।
ज़िंदा नज़र आती ये दुनिया सारी,
एक मुर्दों की बस्ती है,
क्यों उलझता तू बातों में उनकी,
बातें ही जिनकी सस्ती है,
ना कर भरोसा दुनिया का,
वक्त के साथ ये बदलती है,
ताने देने से चूके ना कभी,
कटाक्ष करने को मचलती है,
ना कर परवाह तू लोगों की,
ना सोच कि वो क्या कहते हैं,
मज़बूत चट्टानों के आस-पास,
कंकड़-पत्थर भी रहते हैं,
जो दम रखते हैं कुछ करने का,
दरिया की तरह वो बहते हैं,
आह निकलती ना मुंह से उनके,
हंस के दर्द वो सहते हैं,
अपनी राह जो बनाने चला,
कब किसी ने उसका सम्मान किया,
दे दिल से दुआ हर उस शख्स को,
जिस-जिस ने तेरा अपमान किया,
ना सोच कि तेरी सोच को,
ज़माना मज़ाक समझता है,
क्या ख़ूब है ये ख़ूबी तेरी,
तेरे कारण कोई तो हंसता है।
कवि-अंबर श्रीवास्तव