ये हमारे कलम की स्याही, बेपरवाहगी से भी चुराती है, फिर नये शब्दों का सृजन कर, हमारे ज़हन को सजा जाती है।
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मंज़िलों की तलाश में, अक्सरहां ज़िन्दगी गुम सी जाती है,
खुद के अक्स को भी, पहचानने से ये कतराती है।
लम्हों की साजिशें, जिंदगी को यूँ उलझाती हैं,
कि कतरा-कतरा कर खुशियां लक़ीरों, से फिसलती जाती है।
राहों को ख्वाहिशें, गर्दिशों में यूँ भटकाती हैं,
कि कारवाँ में चलते हुए, सफर को तन्हा कर जाती है।
हर पल एक ख़ामोशी, ज़हन के दरवाज़े को सहलाती है,
कुछ कहने से पहले हीं, शब्दों को मुस्कराहट में निग़ल जाती है।
अब तो आँसुएँ भी, पलकों पर आने से घबराती हैं,
दो बूँद की चाहत में, ये आँखें जाने क्यों तरस जाती हैं?
फिर कभी अंधेरों की, उन गहराईयों से हमें मिलवाती हैं,
जो हमें रौशनी के सच्चे मायने, समझा जाती है।
रास्तों में इतनी ठोकरें लगा कर, हमें गिराती हैं,
की जख़्मी पैरों को भी, चलना सीखा जाती है।
पतझड़ की बेरुख़ी से, जीवन को बेरंग बनाती है,
और फिर बहारों के गलीचे, हमारी राहों में बिछा जाती है।
ये हमारे कलम की स्याही, बेपरवाहगी से भी चुराती है,
फिर नये शब्दों का सृजन कर, हमारे ज़हन को सजा जाती है।