—ये समाज —
कहने को तो में भी
एक हिस्सा हूँ समाज का
पर अपने हिस्से में
एक बोझ है कारोबार का
तानो से बंदिशों से
घिरा हुआ रहता हूँ पल पल
खुद को आजाद न कर पाया
क्यूँ की हिस्सा हूँ इस समाज का
वकत ने कैसी करवट ली
जिंदगी को धरातल पर पटक दिया
खिलते थे कभी चेहरे सब के
अब बेनूर से चेहरे को बना दिआ
क्यूँ की में भी हिस्सा हूँ समाज का
जिंदगी पल पल अजीब से लगने लगी
कल वाली ख़ुशी अब न दिखने लगी
गुजर रहा इंसान अब मौत से जूझ कर
जो कल तक हम सब का हिस्सा थे
क्यूँकि में भी तो हिस्सा ही हूँ समाज का
अजीत कुमार तलवार
मेरठ