ये रीतियाँ
समाज के हज़ार बंधनों ने यु जकड़ रखा है,
बढ़ नहीं पा रहे कदम युं पकड़ रखा है,
ये बंधन ये रिवाज़ बड़े ही अजीब है,
जो सच्चे है दिल के सिर्फ उन्हें ही नसीब है,
न जाने कितने दिल टूट जाते है,
न जाने कितने सपने बिखर जाते है,
बसने से पहले कितने घर उजड़ जाते है,
न जाने कितनी आँखों से अपने उतर जाते है,
गलत है रिवाज़ गलत है रीतियाँ ये नहीं कहूंगी,
कहने की एक मर्यादा है उसमे ही रहूंगी,
मानो वो रिवाज़ जो किसी का दिल न दुखाये,
बचाकर रखो इंसानियत बस इतना ही कहूंगी,
बताती हूँ एक छोटी सी बात,
समझने की कोशिश करना,
हमने बनाई नफ़रत की दीवार और बनाते चले गए,
ऊँची नीची जात बताकर इंसानियत को गिराते चले गए,
देखो ज़रा उन दो दिलों की तरफ़ जो एक होना चाहते है,
समाज का अंतर मिटाकर जो अपनापन चाहते है,
कहना बहुत कुछ चाहती हुं उनकी खुशियों, सपने, उलझनें, फैसले, दर्द और तकलीफों के बारे मे,
पर कुछ नही कहूंगी,
इतना कुछ कहने से क्या होगा,
सुनने वाला हर शक़्श जानता है,
उनकी मोहब्बत का अंजाम क्या होगा,
किसी को मान चाहिए, किसी को सम्मान चाहिए,
किसी को रिश्तों में भी अपना अभिमान चाहिए,
कोई चाहता है कि रिश्ते समाज के अनुसार हो,
तो किसी को अपने बराबर का खानदान चाहिए,
टूट कर बिखर जाने वाले ये सपने है हमारे,
पर क्या करे लड़ नही पायेंगे सब अपने है हमारे,
मिलेंगे दर्द हज़ार हर दर्द को सहना है,
मानो अपनो की बात गर उनके दिल मे रहना है,
हर बार की तरह इस बार भी टूट जायेगा दिल बिखर जायेंगी खुशिया,
इस दिल की लाचारी पर हँसती नज़र आयेंगी ये रीतियाँ,
अंत में सिर्फ इतना ही कहूंगी,
किस्मत रूठ गयी हर दीवाने की,
हार गया दिल जीत हुई ज़माने की।
✍️वैष्णवी गुप्ता(Vaishu)
कौशांबी