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29 Nov 2016 · 1 min read

ये मोहब्बत है पनाह में नहीं रहती

ये मोहब्बत है पनाह में नहीं रहती
बहुत देर ख़ुश्बू गुलाब में नहीं रहती

बिखर जाती हूँ कागज पर बन के मोती
मैं सियाही हूँ दवात में नहीं रहती

आती है खुद मोहब्बत चलकर यहाँ तक
शीरीं ज़बान किसी तलाश में नहीं रहती

ज़िक्र होता है गुलशन फूल हवाओं का
मगर ख़ुश्बू कभी क़िताब में नहीं रहती

बिखर जाने के हुनर से है वजूद मिरा
रोशनी हूँ में चिराग़ में नहीं रहती

गिरते को गिराये चढ़ते को चढ़ाये
जानूं हूँ दुनियाँ हिसाब में नहीं रहती

आँख खुली बदले मंज़र तो पाया’सरु’ ने
हक़ीक़त की दुनियाँ ख़्वाब में नहीं रहती

1 Comment · 254 Views
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