ये भावनाओं का खौफनाक सूखापन
हमने क्या कभी अपने बचपन के बारे में बच्चों को बताया है, कभी अपने बच्चों को ये बताया है कि हम कौन से जमीन से जुड़े खेलों के बीच बड़े हुए। कौन सी वो छोटी-छोटी खुशियां थीं जो हम बड़े होने के बाद भी भूल नहीं पाए?
हमने कभी बच्चों को लोरी गाकर सुलाया या कभी बच्चों ने आपसे जिद की है कि खुलकर ठहाके लगाकर हंसना चाहते हैं, खुले मैदान दौडना चाहते हैं…?
दोस्तों मौसम के सूखेपन से विचारों और भावनाओं का सूखापन अधिक खतरनाक होता है, यदि एक बार मौसम की बेरुखी से फसलों में सूखा आ जाएगा तो वो अगले साल संभव है कि हरियाली की चादर ओढ़ ले, लेकिन यदि विचारों में सूखापन आ गया तो हम बच्चों को संस्कार की परिभाषा समझा नहीं पाएंगे। यदि भावनाओं में सूखा आ गया तो रिश्ते दाव पर लग जाएंगे। दुख की बात तो ये है कि भावनात्मक सूखा बढ़ता ही जा रहा है। पहले हर व्यक्ति एक पूरा का पूरा गांव हुआ करता था, कस्बा हुआ करता था। अब वो एक छोटे से एकल परिवार के समूह के रुप में पहचाना जाता है। कौन सी संस्कृति और संस्कार की ओर बढ़ रहे हैं हम। कौन है जो हमें इतना विवश कर रहा है कि हम अपने बुजुर्ग माता-पिता को समय से पहले ही वृद्वाश्रम की राह दिखाने से भी नहीं चूकते। उनके झुर्राए चेहरे के आंसू हमें नहीं सताते, हमारे व्यवहार से उनके व्यथित मन हमें नजर नहीं आते। इसके हालात के लिए कोई और नहीं हम खुद और हमारा एकांकीपन दोषी है।…
हमने कभी ये भी सोचा है कि हम एकांकी क्यों हो रहे हैं, क्यों हम गांव, कस्बे, मोहल्ला, चौपाल के न होकर केवल अपने और अपने होकर रह गए हैं ? क्यों हमें केवल अपनी ही खुशियां अहम लगने लगी हैं, क्यों हमने अपने आपको एक दालान, एक घर की चारदीवारी में कैद करने का ये बेतुका सा रास्ता अपना लिया है? दोस्तों ये खौफनाक सा भावनात्मक सूखा है, हमारे पास अभी भी समय है हम जैसे भी हो गए हैं कम से कम हमारे बच्चे वैसे न हों। वे भी वही कार्य न करें जो हमने किए हैं, वे भी वैसी ही सोच न रखें जैसी हमने बना ली है…वरना उस दिन बहुत अधिक रोना आएगा जब ये बच्चे हमें भी वृद्धाश्रम की राह दिखा देंगे…।
बचपन में एक कहानी पढ़ी थी…केवल सार ही बताना चाहता हूं। घर की नई बहू सास को मिट्टी के पुराने बर्तनों में खाना देती थी, एक दिन उसी बहू के बेटे ने वो मिटटी के बर्तन संभालकर रखने शुरु किए तो उस महिला पूछा तुम ये क्यों संभाल रहे हो, बच्चे ने जवाब दिया कि आप भी तो दादी को इन्हीं बर्तनों में भोजन देती हो, जब आप बूढ़ी हो जाओगी तो मैं भी आपको इन्हीं में भोजन करवाउंगा….।
संस्कार और भावनाओं से दूरी हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी, हम अपने आपको समग्र बनाएं, एकांकी नहीं। दूसरे के दुखों में मन से शामिल हों, मदद करें लेकिन मन और चेहरे पर खुशी लाकर….। भावना तो वो फसल है जहां उपजेगी वहां खुशियां ही खुशियां नजर आएंगी।
संदीप कुमार शर्मा