ये चर्चे सरे आम थे कभी दबाये जाते नहीं
ये चर्चे सरे आम थे कभी दबाये जाते नहीं
उसकी यादों के परिंदे छोड़ कर जाते नहीं
अल-सुबह अंगडाई ले वो हाथ जो उठाते थे
मिरे जहन से वो खुशनुमा मंजर जाते नहीं
पलकें झुकी ठोड़ी पर रख हाथ मुस्कुराते थे
ऐसी उतरी दिल-ए-तस्वीर उतारे जाते नहीं
शोख-ए-बदन अपने में इस कदर छुपाते थे
ये नश्शा-ए-मय छोड़े छुड़ाए भी जाते नहीं
बहोत समझाइशें हुई ‘लक्ष्मण’ न मानते थे
अदावतों से इश्क–ए-खुश-अंजाम होते नहीं
लक्ष्मण सिंह