युवा लक्ष्यहीन हो रहा
भटक रहा , उलझ रहा
निराश तू , खामोश तू
अवसाद में, आक्रोश में
राजनीति का शिकार तू ।
फिर भी
बबंडर हो रहा
युवा लक्ष्यहीन हो रहा ।
धर्म की आड़ में
असभ्यता के जाल में
बाजार की शान में
युवा मलिन हो रहा
युवा लक्ष्यहीन हो रहा ।
नसा सर चढ़ रहा
धुंए में जीवन घुल रहा
काम वासना में खुद को खो रहा
अवसरवादियों का हथियार हो रहा
युवा लक्ष्यहीन हो रहा ।
घमंड सर चढ़ रहा
बाजार की बोली हो रहा
रिस्तों में कांटे वो रहा
होटल में अकेला सो रहा
युवा लक्ष्यहीन हो रहा ।
अपनी जड़ों से भाग रहा
धैर्य धीरज खो रहा
माया बाजार में लौकिक हो रहा
तकनीकी का दुष्प्रयोग हो रहा
युवा लक्ष्यहीन हो रहा ।
प्रशांत सोलंकी
नई दिल्ली -07