यार नहीं -गजल
**ग़ज़ल**
कभी गुलजार रहे , चमन में बहार नहीं,
खैरियत पूछने वाला, शहर में यार नहीं।
यु तो शानो शौकत की सजी हुई महफिलें ,
कोई दिल से मिले , ऐसा दिलदार नहीं।
मंजूर है फाकाकशी में जिंदगी गुजारना ,
अपना जमीर बेच दूँ , ये स्वीकार नहीं।
हवस की ओढ़े चादर दिखाते अपना नकली चेहरा ,
दिल की दौलत का यहाँ , खरीददार नहीं ।
बिक रहा झूठ भी सरेआम यहाँ ,
सच्चे जज़्बातों का, इकरार नहीं।
खंजर लिए खड़े हैं, यार भी राहों में ,
किस पे करें यकीं, कोई ऐतबार नहीं ।
‘असीमित’ दिल के अरमां, बहे आंसुओं में ,
ये आंसू भी सूखने को तैयार नहीं।
रचनाकार-डॉ मुकेश’असीमित’