*यारा तुझमें रब दिखता है *
डा. अरुणकुमार शास्त्री – एक अबोध बालक अरुण अतृप्त
*यारा तुझमें रब दिखता है *
अब न घर चाहिए न डगर चाहिए
खूबसूरत सा बस हम सफर चाहिए ||
आशना था मैं कभी कुछ दिनों के लिए
तेरे जाते ही अब सपन टूटना चाहिए ||
दर्द ही अब मेरी है दवा बन गया
इतना हद से बढा के शिफ़ा बन गया ||
मुझको अब तो सकूँ का वो पल चाहिए
अब न घर चाहिए न डगर चाहिए ||
खूबसूरत सा बस हम सफर चाहिए
लोग आते गए लोग जाते रहे
बातें कर कर मुझे फिर रुलाते रहे ||
सिलसिला बातों का अब छूटना चाहिए
मुझको अब तो सकूँ का वो पल चाहिए ||
अब न घर चाहिए न डगर चाहिए
खूबसूरत सा बस हम सफर चाहिए ||
देखो घन्टी बजी शायद वो हो कहीं
देखो घन्टी बजी शायद वो हो कहीं
जिसके पीछे हैं मेरी खुशियाँ रुकी ||
खोल दो खिड़कियाँ पूरा घर खोल दो
उसके आते ही तुम चमन खोल दो ||
कोई रोके नहीं कोई टोके नही
आज मुझको तो बस वो जतन चाहिए
अब न घर चाहिए न डगर चाहिए ||
खूबसूरत सा बस हम सफर चाहिए