याद
जब भी सोच में सोचता हूँ तुम्हें
काँप उठता है मेरा तन बदन
बेकाबू हो जाती हैं दिल की धडकनें
तीव्र हो जाती हैं मेरी जीवन की सांसें
रौंगटे खड़े हो जाते हैं मेरे
सिरहनै उत्पन्न होती है सिसकियों संग
बेतहाशा हिचकियाँ आती हैं मुझे
और स्मरण हो जाती हैं अविस्मरणीय
अमिट उसकी संगीन महीन स्मृतियाँ
जो आज भी मेरे मन मस्तिष्क पटल पर
श्वेत हिम कण सी जमी हुई हैं जो
पींघल जाती हैं यादों के झरोखे की
चीस और टीस के दहकते अंगारों से
कर देती हैं मुझे बेजान बेसुध अर्द्ध मृत सा
शब्दों के विराम से हो जाता हूँ निशब्द
थम जाते हैं बेशकीमती जीवन लम्हें
हो जाता है चेतन मन अचेतन
हरे हो जाते हैं अतीत के जख्म जो कि
अब उसकी बेवफाई या बेवकूफियत में
नासूर बन गए हैं और दे रहें है चिरकाल से
हर पल हर क्षण हर सांस में असहनीय पीड़ा
पर जिन्दा है आज भी एक मद्धिम धूमिल
धुँधली सी एक कभी ना पूरी होने वाली
जीवन में वापिस आने वाली एक आस
जो निराशिओ के बिस्तरासीन पर
आज भी तंग से सांस लेती जिन्दा है
और इसी बेरहम बैगेरत झूठी सच्ची आस ने
मुझे रख रखा है आज भी जीवित और सजीव
निष्ठुर और दयाशून्य संसारिक पटल पर
सुखविंद्र सिंह मनसीरत