याद मेरे गाँव की
मुझे सोने नहीं देती,
खुश होने नहीं देती,
याद मेरे गाँव की, याद मेरे गाँव की।
जिस आँगन में बचपन बीता वो सूना पड़ा है,
खंडहर हो गया पर घर मेरा आज भी खड़ा है,
अपनों के करीब रखती है,
बनाये खुशनसीब रखती है,
याद मेरे गाँव की, याद मेरे गाँव की।
वो गलियाँ वो कच्चे रास्ते आज भी बुलाते हैं,
सखियों के संग बिताए वो लम्हें बहुत रुलाते हैं,
अक्सर ही बेचैन कर जाती है,
आँसुओं से आँखें भर जाती है,
याद मेरे गाँव की, याद मेरे गाँव की।
खिंच लाता है गाँव में बड़े बूढ़ों का आशीर्वाद,
लस्सी, गुड़ के साथ बाजरे की रोटी का स्वाद,
मन में एक आश जगा जाती है,
एक पल को दुनिया भुला जाती है,
याद मेरे गाँव की, याद मेरे गाँव की।
शहरों में कहाँ मिलता है वो सुकून जो गाँव में था,
जो माँ की गोदी और नीम पीपल की छाँव में था,
समय मिलते ही गाँव बुला लेती है,
चंद खुशियां दामन में डाल देती है,
याद मेरे गाँव की, याद मेरे गाँव की।
जल बिन मीन के जैसे मैं छटपटाती रहती हूँ,
किस्से बचपन के अक्सर गुनगुनाती रहती हूँ,
दिल में अपने मैंने है पाली,
“सुलक्षणा” ने शब्दों में ढ़ाली,
याद मेरे गाँव की, याद मेरे गाँव की।
©® डॉ सुलक्षणा अहलावत