याद आते हैं
याद आते हैं बचपन के दिन,
वो खेलना, कूदना,
मम्मी पापा की डाँट,
वो दोस्तों के साथ झगड़ा,
झगड़ा और दोस्ती का खेल चलते रहना,
बस रोज़……………..
बस रोज़………………
बात बात पे लड़ना और फिर दोस्त बन जाना,
बड़े हो गए हैं,
थोड़ा ज़िद्दी हो गए हैं,
आज झगड़ा कर के दूर चले जाते हैं,
ज़िन्दगी भर बात नहीं करते।
याद आते हैं वो बचपन के दिन,
पापा के अँगुली के पोर पकड़ कर स्कूल जाना,
घर से स्कूल, स्कूल से घर,
बिना परवाह के बस चलते जाना,
बस रोज़…………
बस रोज़…………
बस्ते का बोझा उठाते उठाते, बस….
ज़िन्दगी का बोझा उठाने लायक हो गए,
बस अब ज़िम्मेदारियों का बोझा ढोते यों ही,
एक दिन चले जाना है।