यादों के झरोखों से…
यादों के झरोखों से…
°~°~°~°~°
यादों के झरोखों से , कुछ सुनहरी यादें है,
बीते हुए लम्हों की अनकही ज़ज्बातें है।
फूस की झोपड़ियों में,गुजरा था बचपन का कोना,
गांवों की गलियों में, गुमनाम तराने थे।
भींगता तन-मन जो,रिमझिम सी बारिश में,
कागज के नौका संग, हम सब दीवाने थे ।
मेढक की टर्र-टर्र संग खुद भी टर्रटराना,
कोयलिया के कुहू-कुहू संग कोकिल का स्वाँग रचाना।
मन के मकरंदो पर वो, भ्रमर का ही गुंजन है..
यादों के झरोखों से , कुछ सुनहरी यादें है,
बीते हुए लम्हों की अनकही ज़ज्बातें है।
आंगन की क्यारी में लहराता हमेशा ही,
माता का आंचल तो बड़ा मनभावन था।
बरगद के पेड़ों सा पिता की परछाई थी,
खेतों में झूमें मन,फसलों की बाली थी।
दोस्तों संग खेला जो,वो पिट्टो और कबड्डी था।
गुजरा वो बचपन अब, भूला हुआ आंगन है…
यादों के झरोखों से , कुछ सुनहरी यादें है,
बीते हुए लम्हों की अनकही ज़ज्बातें है।
जीवन की तरुणाई में, ढूंढती वो निगाहें जो,
दिल की बातें कुछ, निगाहों से बयां होती थी ।
आंखों की गुस्ताखियों को,खामोशियां पढ़ लेती थी,
भीड़ में कहाँ गुमसुम मोहब्बत के फंसाने थे।
बुनते नये ख्वाबों का,आशियाँ रोज दिन हम तो,
यादों को यादों से अब तो हंसी आती ।
लम्हें जो बीते वो बड़ा ही प्रभावन था।
बीता हुआ यौवन भी एक मंगल उद्बोधन है…
यादों के झरोखों से , कुछ सुनहरी यादें है,
बीते हुए लम्हों की अनकही ज़ज्बातें है।
गृहस्थी का प्रांगण भी यादों में सिमटी है,
हकीकत में वो ख्वाबें तो, कष्टें भी भुगती है।
परिश्रम के पसीने से आंगन को सजाया हूँ ,
संतति के सपनें हेतु ,सपने कुछ छिपाया हूँ।
चुन-चुन कर खुशियों को हथेली पर लाया हूँ ।
पल-पल परिवर्तन पर जीवन एक उपवन है।
भविष्य की चुनौती को, करती कुछ फरियादें हैं…
यादों के झरोखों से , कुछ सुनहरी यादें है,
बीते हुए लम्हों की अनकही ज़ज्बातें है।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )