“यादों के झरोखे से”
“यादों के झरोखे से”..
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“यादों के झरोखे से”, मैं क्या-क्या बताऊॅं,
क्या-क्या याद करूॅं और क्या भूल जाऊॅं।
अपना बचपन था,जैसे समुंदर की हों लहरें;
मस्ती थी, सस्ती; बगीचों में गुजरती दोपहरें;
निकलते थे,सब ही अपने ‘घरों’ से ‘धोखे’ से;
आज याद आई ये बात,”यादों के झरोखे से”।
‘दोस्त’ ही होते थे, सदा असली सलाहकार;
‘दोस्ती’ थी गहरी, आपस में था खूब प्यार।
सबमें सदा खूब, ‘हसीं-मजाक’ भी होते थे;
आज याद आई ये बात,”यादों के झरोखे से”।
‘स्कूलों’ में था ना,किसी की ‘जाति’ का पता;
ना ही था वहां , कोई ‘धर्म’ का ही ‘ठिकाना’;
आपस में सब , लड़ते भी कभी ‘अनोखे’ से;
आज याद आई ये बात,”यादों के झरोखे से”।
तब सब ही थे , बस एक दूजे का ‘दीवाना’;
निज सुख-दुःख में,सब साथ हॅंसते-रोते थे;
बर्फ, पाचक और बैर भी मिल बाॅंट खाते थे;
आज याद आई ये बात,”यादों के झरोखे से”।
अलग उमंग था, जब ‘स्कूल’ में ‘लट्टू’ नचाते थे;
अठन्नी-चौवन्नी ही,कभी-कभी स्कूल ले जाते थे;
भिखारी भी खुश हो जाते, दो पैसों के भीखों से;
आज याद आई है ये बात,”यादों के झरोखों से”।
‘पढ़ाई’ का सबमें, तब अलग ही ‘जज्बा’ था;
पढ़ने वालों का ही, ‘समाज’ पर ‘कब्जा’ था;
उन्हें देखकर , सब ही खुशी से झूम जाते थे;
आज याद आई ये बात,”यादों के झरोखे से”।
तब माहौल तो था , सड़कों पे भी शांति का;
सिर्फ ‘दूरदर्शन’ था,देखते किस्सा शांति का;
‘रंगोली’और ‘रामायण’भी,खूब देखे जाते थे;
आज याद आई ये बात,”यादों के झरोखे से”।
कुछ लाने होते थे,न पास कहीं बड़ी दुकान थी;
हमेशा तो पैदल या साइकिल की ही,उड़ान थी;
न बड़े मकान थे,फूसों में ही खुशी सब सोते थे;
फिर से याद आई ये बात,”यादों के झरोखे से”।
और क्या, “यादों के झरोखे से” भला बताऊं;
आखिर क्यों मैं ही, खुद के यादों को सताऊं…..
आखिर क्यों मैं ही, खुद के यादों को सताऊं………
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स्वरचित सह मौलिक;
……✍️पंकज ‘कर्ण’
………….कटिहार।।