यादें
आओ,आज फिर
छत की मूंडेर पर बैठते हैं।
चाय की प्यालियों के बीच
जिंदगी की दुश्वारियों से दूर
कुछ शकून भरे पल जीते हैं।
देर तक निहारते
वजूद को तलाशते
फूट पड़े कोंपलों में
जीवन – रस घोलते हैं ।
वक्त के फरेब में
उलझनों की बस्ती में
अनुत्तरित लम्हों की
एक कतार चुनते हैं।
धड़कनों की आहट में
सांसों की इस सरगम में
टेढ़े – मेढ़े रास्तों में
जीवन – सूत्र ढ़ूढते हैं।
गुनगुनी – सी धूप में
मोह-पाश अंग में
ऊंगलियों की उलझन में
प्रेम – चक्षु खोलते हैं।
आओ, आज फिर
छत की मूंडेर पर बैठते हैं |
चाय की मिठास को
जीवन में घोलते हैं!