यह लाश अचिन्ह है?
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अलग हैं ब्रह्मांड रचे जाने के नियम.
विनतियाँ नहीं चलते वहाँ
चलते हैं सिर्फ गणित के समीकरण.
इस ब्रह्मांड में,
वह यदि अलाव के पास बैठा तो
मरेगा भूख से.
नहीं बैठा तो
ठंढ से.
‘वह’,वह है
नहीं होती
जिसके पास जमा-पूंजी.
रोज का अर्जन है
रोज का भोजन.
आलावा इसके
भूख के परीक्षा में पास होने की
और दूसरी नहीं कोई-
सफलता की कुंजी.
बढ़ी थी ठंढक पहले कम फिर ज्यादा.
खिसकते-खिसकते शून्य के नीचे तापक्रम.
मौसम वैज्ञानिकों के अनुमान बढ़ेंगे तो
बढ़ेगा तापक्रम.
बढने से होगी सहूलियत उसे.
भू नहीं, भोजन-अर्जन पर
पा सकेगा निकल.
किसी मौत से शायद
वह और उसका कुनबा
बच जाने में होगा सफल.
भूख से मरने देना, अपराध नहीं,
अभीतक है अनैतिकता.
काश! इस ठंढक के तवे पर
रोटियां सिंकता.
चाहे गीली ही.
दूरदर्शन पर
कथावाचक और सन्देशवाहक के बीच
मरनेवाले वे हैं जो
गर्मी में लू से मरते हैं
या सर्दी में अधभरे भूख के ठंढ से .
शायद पूर्वजों के किये गये
अपराध के दंड से.
वह अपराध;
युद्ध से भाग जाने का हो सकता है.
वह अपराध;
किसीकी अधीनता स्वीकार कर लेने का
हो सकता है.
धरती सर्वभोग्या है.
श्रेयस्कर भोग है
कुटुंब की तरह.
सिंहासन सर्वभोग्य होता!
नहीं है.
हर मौसम इसलिए
मरने का मौसम है
उनके लिए.
वे मरते इसलिए नहीं कि
मौसम सर्द है या गर्म.
क्योंकि
उसके लिहाफ का आग
उसका पीपल का वृक्ष.
छीन ले गया है कोई
आततायी क्रूर यक्ष.
क्षुब्ध ताप और क्रोधित ठंढ से
बचने के साधन वाले जो हैं वे.
बार-बार पालनकर्ता विष्णु के
स्थापित नियमों को
है तोड़ने वाले.
विष्णु भी उसका बाल-बांका
कर नही पाते मेरे होने तक.
उसके बाद जो हो,
आता नहीं मुझ तक.
वे नियमों से बचाव कि जुगत में
होते है दक्ष.
वे बेचते हैं नैतिकता.
तौलते हैं व्यवहार.
गिनते हैं शासक के कद.
आंकते है सत्ता के अंक.
जानते है वे
कैसे और कब बदलना है
कौन सा पक्ष.
इस ठंढ भरे मौसम में
और
उस लू भरे गर्म हवाओं में
मरने वाले है हम.
जो चीथड़े पहने माँ
के कोख से
नग्न उतरकर नग्न ही रहे.
जबतक किसी ठंढ या लू में
मर नहीं गये हम.
हमें मरने का किन्तु,
मानवीय भाग्य प्राप्त हो.
पाशव नहीं.
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