यही किस्सा हमारा उम्र भर का…
यही किस्सा हमारा उम्र भर का ….
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रहे हिस्सा कराते इस जिगर का,
यही किस्सा हमारा उम्र भर का ।
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दरोदीवार से वाकिफ हुए तब,
पता हमको चला जब खंडहर का ।
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खुमारी इश्क की अब जान लेगी,
पता हमको नहीं था इस असर का ।
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तमन्ना है तुम्हें भेजूँ कभी खत,
पता मिल जायगा क्या आज घर का !
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सुना है खूब कब्रें हैं अदब की,
तभी तो नाम है तेरे शहर का ।
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बता देना उसे रस्ता न देखे,
नहीं करना हमें अब रुख उधर का !
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जरा सी आँख लगने पर ज़ुलम क्यों,
जगा हूँ मैं समूचे रात-भर का !
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हमें तहजीब देने चल पड़ा है,
निगोड़ा एक छोरा हाथ-भर का ।
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हुए तो हैं कई रद्दोबदल पर,
मजा फिर भी वही तिरछी नजर का ।
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मुहब्बत गर करो, बेखौफ होकर,
यही पैगाम मेरे हमसफर का ।
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कहो न “हरीश” इससे बस करे अब,
दिवाना कौन है यह इस कदर का ?
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हरीश लोहुमी , लखनऊ
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