यथार्थरूप
निश्छलता को जन्म देती हुई
जब एक आस
मन में ठहरती है
तो चिंताओं के उष्ण में जलते हुए
वह धूं-धूं करती
दुविधाओं में तपकर
तामस की तरह अभेद हो जाती है
तब एक अद्वितीय व ईश्वरीय तरंग
कृष्ण रूपी चित्त को छुकर
अपने स्पर्श से अंतर्मन को
उस बुनियाद पर ला देती है
जहां से नि तो कोई नीच की व्यथा है
और ना ही कोई ऊंच का अभिमान
बल्की से
वहां से तो सिर्फ गंतव्य
या तो समृद्धि का होता है
या समाप्ति का
शिवम राव मणि