यत्र तत्र सर्वत्र हो
यत्र तत्र सर्वत्र हो कण-कण में तुम ही शक्ति हो
सेवा सुमिरन भजन मंथन भक्त तुम ही भक्ति हो
हर रूप में स्थान पर हर नाम में कर्ता तुम्हीं तुम
पार ब्रह्म,परमेश्वर अनादि तुम ही आदि शक्ति हो
तुमको ही खोजें सन्त ज्ञानी वेद तेरी पावन वाणी
निर्मल मन भजता रहे जो नहीं हो फिर वो कृपाणी
होता सुगन्धित बाग़ उपवन मन महकता तू ही तू
जो रहे तुझको समर्पित सिद्ध होती उसकी वाणी
तुझमें मुझमें चराचर जगत में एक ही शक्ति निरन्तर
कर्मफल के पाश प्राणी, जन्म मृत्यु में बंधे युगांतर
उद्देश्य जीवन का समझ जो चल रहे इस मार्ग में
आत्म वोध पा ही लेते, समझते फिर सत्य अन्तर
तुम शिवत्व साधना भी ध्यान की हो धारणा भी
तुम ही जीवन लक्ष्य मेरा तुम ही मेरी कामना भी
शब्द अक्षर वाक्य मेरे,अभिव्व्यंयंजना मेरे भाव की
हृदय तेरा निवास हो औ अंग संग तेरी कामना भी
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