अंतर्मन
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बहुत दिनों से था,
जिससे मिलना चाहता।
पर उसके अपॉइंटमेंट,
का समय मिल न पाता।।
आज सुबह होते ही,
अकस्मात् हो गयी उससे गोष्ठी।
आख़िर थी ही हमारी,
अंतर्मन की दोस्ती।।
आँखे ही देख रही,
एक दूजे को टकटकी लगाए।
जैसे हमारे मन की बातों को,
आपस में कहती जाये।।
मौन था वो,
आज मेरे सामने।
बस मैं ही लगा था मन ही मन,
उससे हज़ार सवाल पूछने।।
कहाँ गए तेरे ख्वाब,
जिसमे तुझे पाना था आसमाँ ।
पता चला मुझे आजकल की,
तेरा खाने का समय भी हैं असमान।।
आजकल तू मुझसे,
बातें नहीं कर पाता।
ऐसा क्या हैं
जिससे तू हैं कतराता।।
वो अभी भी था,
बिलकुल चुपचाप ।
उसकी चुप्पी
लग रही मुझे जैसे अभिशाप।।
अब मैंने भी,
उसे देखने को टकटकी लगायी।
उसके चहरे पर,
अपनी नज़रे दौड़ायी ।।
ये क्या हुआ,
तेरी आँखों के नीचे काले घेरे।।
बता क्या समस्या हैं
जो हैं तुझको घेरे।।
थोड़ा थोड़ा
तेरे बालो का रंग बदल रहा।
मुझे भी पता हैं,
समय अब वो न रहा ।।
ये तेरे चेहरे पर
जो एक हैं मायूसी ।
सपनो को सच में,
न बदल पाने की हैं एक ख़ामोशी।।
चेहरे पर थोड़ी थोड़ी
झुर्रिया कुछ जता रही।
जीवन के अनुभव का
तेरा किस्सा बतला रही।।
उससे इन बातो ही बातो में,
भूल गया में समय की पतवार।
एक फ़ोन कॉल ने रोकी ,
इन बातों की रफ़्तार।।
ये क्या मैं अभी भी,
आईने के हूँ इस पार।
और अब मुस्कुराने लगा,
मेरा प्रतिबिम्ब उस पार।।
जैसे कह रहा हो,
चलफिर करते हैं कोशिश,
सपनो को हकीकत बनाने की
और आसमाँ को मुट्ठी में पाने की।।
डॉ महेश कुमावत