मौन संवाद
, [ मौन संवाद ]
अंबर ने अवनी से पूछा,कहो तो भू पर आ- जायें !
अवनी के मन में भी यह था,अंबर हृदय समा जायें !!
दोनों ने मिलने की मंशा ,यूँ तो निष्पादित कर दी –
लेकिन प्रश्न बिना उत्तर के,दोनों के मन सकुचाएँ !
आयी रात, रात भर दोनों ;रहे सोचते—– दोनों ही –
जो मेरे मन क्या उस के मन सोचें -सोचें रह जाएँ !
दिन भर तपन झेल कर,अवनि बहुत बे-हाल हुयी-
अंबर सोचे क्यों न रात को,ओस-कणों को बरसाएँ!
गर्म हवाओं की झंझा से,अंबर हाल-बे-हाल हुआ-
अवनि सोचती क्यों न प्रभा से कह नभ नर्म बना पाएँ !
अंबर की कितनी ऊँचाई, विहग नापते नित-प्रति ही-
नित्य धरा पर बना ठिकाना,जीवन सुलभ बना पाएँ!
जो हो,कुदरत के सब अवयव;एक-दूजे का ख्याल रखें-
कितना अच्छा हो मानव भी,ख्याल परस्पर रख पाएँ !
समझने वाले समझ गये यहाँ,अंबर रूप दया का है –
अवनि वह कि जो सब को सब को,आश्रय देकर हर्षाएँ !
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मौलिक चिंतन/ स्वरूप दिनकर, / आगरा
,————- 13 /01/2024 ——————–