मोहन राकेश की डायरी से
हवा में वासंती स्पर्श है-समय अच्छा-अच्छा लगता है।ऐसे में अनायास मन होता है कि हल्के-हल्के स्वर में किसी से बात करें।अपने चारों ओर घर की मिठास,घर की उष्णता हो।किसी के हाथ की चाय लाकर दे,और प्याली के साथ वह हाथ भी थाम ले।हल्का-सा खिंचाव हो और ओठ मदिर मुस्कुराहट से फैल जाएं।परंतु ये सब कैसे हो?..जिससे इस सबकी आशा की थी,सामने तो उस दिन रेखा खींच दी।जिससे वस्तुत: आशा की पूर्ति संभव है,उसके अपने बंधन है,अपने दायित्व है,एक भरा पूरा घर है,जहां उसे अपना एक निश्चित रोल अदा करना होता है।
मोहन राकेश की डायरी से..
मनोज शर्मा