* मोरे कान्हा *
डा . अरुण कुमार शास्त्री
एक अबोध बालक _अरुण अतृप्त
* मोरे कान्हा *
धन्य धन्य बलहारी जाऊँ
गिरीधर तुमको सीस नवाऊँ
बिन तेरे सिमरन के काँनाहा
बिन पानी की मीन कहाऊँ
धन्य धन्य बलहारी जाऊँ ||
लख चौरासी में भटका हुँ
अपने कर्मो के कारण मैं
आस नहीं दीखे इस अबोध को
कैसे इस से मुक्ति पाऊँ
धन्य धन्य बलहारी जाऊँ ||
आरती कान्हा जो मैं गाऊँ
सौ सौ वा में जुगत भिडाऊँ
तन्त्र मन्त्र चालाकी रच कर
अपने जाल में खुद फंसता जाऊँ
धन्य धन्य बलहारी जाऊँ ||
तेरे न्याय पर करूं भरोसा
फिर अपनी में सोच भिडाऊँ
लाज़ राखियों हे गिरि धारी
इस विचार से निकल न पाऊँ
विचलित मन आहत शरीर से
हे ईश्वर ध्यान तिहारा कर न पाऊँ
धन्य धन्य बलहारी जाऊँ ||