मोबाईल नहीं
दन्नू घर पर बैठा- बैठा,
बस बैठा ही रहता था ।
बैठे बैठे सारा दिन,
मोबाइल चलाता था ।
इक दिन दादाजी ने सोचा ,
दन्नू को समझाता हूँ।
इसको आज जगत लगाकर,
बाहर घुमाकर लाता हूँ,
दादा बोले दन्नू बेटा,
तुमको कुछ बतलाना है ,
एक खिलौने वाला आया,
चलो खिलौना लाना है ,
सुना खिलौने का जब नाम,
दन्नू ने छोडा सब काम,
चट से वो तैयार हुआ,
दादाजी के साथ गया ,
हाथ पैर के चलने से ,
तन मे हलचल होती थी,
हवा भी छूकर जाती थी,
उसका मन हरषाती थी,
शुद्ध हवा कमाल लगी ,
ज्योही उसके गाल लगी ,
मन भी इतना खुश था कि,
आज सडक कमाल लगी ,
देख रहे थे ,दादाजी,
समझ रहे थे दादाजी,
उसे दिलाया एक खिलौना ,
जो सुर मे गाता था गाना ,
दादाजी ने बोला दन्नू,
कल को भी हम आयेंगे,
मै तो बिलकुल हू तैयार,
आज की सैर थी मजेदार,
आज समझ मे आया है ,
कुदरत मे जो समाया है ,
वो मोबाइल मे गंवाया है ,
अब तो रोज सैर करूंगा ,
मोबाइल दास नही बनूगा।