मैने देखा उसे…..
मैंने देखा उसे,
इस ओर आते हुए,
गाड़ियों के बीच से,
औ’ शीशों को खटखटाते हुए।
रंग काला था,बदन मैला सा था,
फटे पुराने कपड़े औ’ कंधे पे थैला सा था ।
एक हाथ मे बच्चे को सीने से चिपकाये थी
दूसरा हाथ फैलाकर कुछ पैसे जुटाए थी,
इस कड़ी चिलचिलाती धूप में,नंगे पैर,
जा रही थी हर गाड़ी के पास, एक उम्मीद थी,
पर उस गर्मी में किसी का शीशा नीचे न उतरा,
आगे जा आगे जा बोलकर हर कोई सिग्नल से निकला,
अरे देख तो लो एक बार उस गरीब को नज़र उठाकर कोई,
जो अपने उस बच्चे की भूख से , न थी तीन दिन से सोई,
कुछ तो खिला दु बेचारे को,एक पैसा दे दो,
झोली फैला कर अपनी, वो चिल्लाई भी और रोई।
सूख गया था बदन उस माँ का,
बस हड्डियाँ थी झांकती,
कहा से लाती खाना,कैसे अपना दूध पिलाती,
तभी दिखी उसे सड़क किनारे एक पोटली,
फेंक गया था कूड़े में कोई, सब्जी और रोटी,
गयी भाग कर उसे उठाया, खुशी में आंसू रुक न पाया,
झट से उसने रोटी खाई, अपने लाल को भी खिलाया,
सहीं हो चाहे उसने दिक्क़तें कितनी,
थी तो आखिर माँ ही, दिल से उसके दुआ ही निकली..
©ऋषि सिंह “गूंज”