मैं हिन्दी अविनाशी हूँ
मैं भारत हूँ ,भाग्य विधाता ,
जनगण मन की काशी हूँ ।
पादप शुचि से महा उदधि हूँ,
मन-मति से कैलाशी हूँ ॥
मैं देखी हूँ ऋचा सृजन को ,
मैंने बोली सुर -वाणी ।
मैनें सुनी – है धम्म चक्र को ,
पालि से पाकृत कल्याणी ॥
अपभ्रंशों में सभी समाहित ,
मैं हिन्दी अविनाशी हूँ।
सूरदास ने मुझको गाया,
आँगन तुलसी बनवाए ।
कबिरा ने दी दिव्य रागिनी ,
सूर प्रीति -सुर बरसाए ॥
स्वर्ण-वाङ्मय से सज्जित हूँ,
अनगिन भाषा भाषी हूँ ॥
पदाक्रान्त हो लुटतीआई ,
साल हजारों लोगों से।
देश विदेश सभी से लड़ती ,
आई स्वार्थी भोगों से ॥
परवशता से मुक्त हुई पर ,
अभी लोभ की पाशी हूँ।
न्याय माँगता बाँधे आँखें ,
मुझसे भ्रष्टाचार अभी ।
शोषण का ही पोषण होता ,
लोकतंत्र लाचार अभी ॥
गौरव गाथा जैसी मेरी ,
वैसे की अभिलाषी हूँ ॥