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20 Jul 2016 · 1 min read

मैं सोंचता हूँ दर्द तबस्सुम में लू छुपा।

आते रहे युहीं जो खयालात’ कुछ न कुछ”
लिक्खेंगे फिर तो हम भी ग़ज़लयात’कुछ न कुछ”

मैं सोंचता हूँ दर्द तबस्सुम में लूं छुपा”
आँखों से बहने लगते हैं जज़बात कुछ न कुछ।

पत्थर भी मेरी मौत पे हो जाएं चश्म नम”
ऐसे बना खुदाया तू हालात’ कुछ न कुछ।

तूफान कर रहा है चराग़ों की हिफाज़त”
पूंछे न अक़्ल कैसे सवालात’कुछ न कुछ।

ले जाओ अपने साथ मोहब्बत के सफर में”
काम आएंगे मेरे ये तजरबात’कुछ न कुछ।

नज़रे जलाल डालो तो पत्थर के टकड़े हों”
ऐसा अगरचे हो तो बने बात’ कुछ न कुछ।

रक़्साँ है रोम रोम सबब ये है ऐ जमील”
तारी है हम पे वहशत ए नग़मात’कुछ न कुछ।

3 Comments · 205 Views
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