मैं सच लिखने से क्यों डरूँ ?
जो बात कहने से भी डरते है सब
वो बात सबने कही
वो कहने से नही डरे
तो मैं सच लिखने से क्यों डरूँ ?
जो तिरस्कार दिया अपनों ने
जिसकी कल्पना नही की सपने में
वो देने में नही डरे
तो मैं सच लिखने से क्यों डरूँ ?
शर्म बेच बेशर्म हुये
धर्म के नाम पर अधर्म हुये
वो अधर्मी तब भी नही डरे
तो मैं सच लिखने से क्यों डरूँ ?
सदाचार का झूठा पाठ पढ़ा
मनमानी करते रहे निरंतर
वो अनाचार से नही डरे
तो मैं सच लिखने से क्यों डरूँ ?
हर रिश्ते में मर्यादा होती है
उन रिश्तों को तोड़ कर
वो अमर्यादित होने से नही डरे
तो मैं सच लिखने से क्यों डरूँ ?
सारे गुनाह गलत होते हैं
फिर भी सब करते रहे
वो गुनाह करने से नही डरे
तो मैं सच लिखने से क्यों डरूँ ?
डर का डर नही जिनको
कुकर्म जी भर करते रहे
वो उस डर से नही डरे
तो मैं सच लिखने से क्यों डरूँ ?
निडर हो कर झूठ बोलें
सच को कदमों तले डालें
वो झूठ बोलने से नही डरे
तो मैं सच लिखने से क्यों डरूँ ?
सबने अपनी हद पार की
आँखों की शर्म बेच दी
वो हद पार करने से नही डरे
तो मैं सच लिखने से क्यों डरूँ ?
इसलिए की वो डराते हैं
अपने झूठ का भय दिखाते हैं
वो डराने से नही डरे
तो मैं सच लिखने से क्यों डरूँ ?
क्यों डरूँ क्यों डरूँ
तुम्ही बताओ मैं क्यों डरूँ
मैं सच लिखने से क्यों डरूँ ?
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 07/07/2020 )