मैं शिक्षक हूँ साहब
मैं शिक्षक हूँ साहब, मुझे शिक्षक ही रहने दो ।
मत गिरवी रखो मेरी आत्मा, मेरे विचार
मुझे मेरे छात्रों से सीधे-सीधे जुड़ने दो।
मैं हूँ शिल्पकार जिस मूर्ति को गढ़ती हूँ,
मेरी छेनी, मेरे विचार, मेरी आत्मा
पर्याप्त है उसे गढ़ने को,
मत लाओ बीच में और औजार
मुझे उसे सीधे-सीधे गढ़ने दो।
मैं शिक्षक हूँ साहब………….
तुम्हारे अतिरिक्त औजार
भले ही सुन्दर नक्काशी कर पाएं
पर नहीं भर पाएंगे मूर्ति में प्राण
मुझे उन्हें आत्मवान करने दो ।
मैं शिक्षक हूँ साहब…………..
मैं मानती हूँ आपकी योजनाएं
हैं बहुत उपयोगी व मूल्यवान
पर मत करें उनका मशीनीकरण
हमें रोबोट नहीं आत्माएं चाहिए ।
मुझे उनके कौशल में उन्हें दक्ष करने दो।
मैं शिक्षक हूँ साहब…………..
इस विद्यालय की बगिया में
हैं बहुत नन्हें नन्हें प्यारे फूल
सबकी अपनी छवि अपनी सुगंध
नहीं बना सकते उन्हें एक समान
उनकी इस भिन्नता को कर स्वीकार
उन्हें समयानुसार खिलने दो ।
मैं शिक्षक हूँ साहब…………..