मैं लिखती रही उसे…
मैं लिखती रही उसे जबाब न कोई आता
कई दिनों के बाद कागज कोरा आ जाता
क्या कहना चाहता था क्यों कह न पाता
भीगा कागज देख कौन समझ न जाता
हाथ में ख़त कोरा आँखों से लरजती धार
अश्क बाँचते पीड़ा मन मेरा भीगा जाता
किर्च-किर्च सब ख्वाब बिखरी थीं उम्मीदें
रूठी किस्मत मेरी आखिर कौन मनाता
छलक पड़ता गम मेरा लाँघ पलक की सीमा
जितना सहेजती उसको उतना मचला जाता
समझाते यही मुझे सब पगली दिल पे न ले
मेरी इस चिर व्यथा को कोई समझ न पाता
आज भी जब-जब मैं लौट अतीत में जाती
स्मृतियों का मधुर झोंका चौंका मुझे जाता
जब-जब मेरी नज़र से नज़रें उसकी मिलतीं
आँखों में उसकी अक्स मेरा ही नज़र आता
माना आस में उसकी भ्रमित-सी मैं जीती हूँ
जीने दो मुझे यूँ ही इसमें तुम्हारा क्या जाता
जो पीछे से आकर वह हौले से कहता ‘सीमा’
बिखरा जीवन मेरा आज सँवर फिर जाता
किस हाल में है अब वो जानूँ मैं किस विध
ओ चाँद गगन के तू ही खबर उसकी ले आता
– डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
“चाहत चकोर की” से