मैं लिखती नहीं
मैं लिखती नहीं बस लिखा जाता है,
मैं शब्दों को चुनती नहीं शब्द मुझे चुन लेते हैं।
स्मृतियों के घने जंगल में से जब गुज़रती हूँ,
बेतरतीब फैली लताएँ मुझे जकड़ लेती हैं।
होता है जब सामना अप्रत्याशित घटनाओं का,
काली घटा बन अनायास आँखें बरस जाती हैं।
तथा कथित समाज है विद्रूपताओं का ताना बाना,
दिमाग़ पर हावी होते अच्छे बुरे घटक चुन लेती हूँ।
बना संबल अपनों का दिया आदेशात्मक प्यार,
मंद मंद मन में ही मुस्कुरा कर सृजन कर लेती हूँ।
अनघड़ रिश्तों की इबारत लिखने की कोशिश में,
भावनाओं में जमा घटाकर जोड़ तोड़ कर ही लेती हूँ।