मैं यूं ही नहीं इतराता हूं।
मै यूं ही नहीं इतराता हूं।
चाह नहीं थी इत्र की,
पर खुशबू बन महकाता हूं।
मै यूं ही नहीं . . . . . .
जाने कौन घड़ी थी,
नील कमल खिल आया।
नेताम के आंगन में,
किलकारी गुनगुनाया।
खुशियों के ढोल नगाड़े,
गुंज उठे थे गगन में।
खुशियां ही खुशियां आईं,
दो परिवार के जीवन में।
चाह नहीं थी फुलों की,
पर बगिया मै बन जाता हूं।
मैं यूं ही नहीं . . . . . .
थकान मिट जाती है,
मेरे एक मुस्कान से।
खो जाते हैं मुझमें ही,
पूरी दुनिया है अंजान से।
चला जाता हूं मैं कहीं ,
निगाहें दरवाजे पर रहती है।
प्यार की महक, मुहल्ले में उड़ती है,
मेरे इस मकान से ।
चाह नहीं तन्हाई की,
पर भीड़ में अलग से दिख जाता हूं।
मैं यूं ही नहीं . . . . . .
काबिल समझा जब लोगों ने,
पद पर मुझको बैठाया।
तब मैंने समझा मैंने जाना,
समाज को कैसे गया है भटकाया।
धर्म संस्कृति रूढ़ीप्रथा गांव ब्यवस्था,
मूल इतिहास से लोगों को अवगत करवाया।
मिली श्रमिक संघ की बड़ी विरासत ,
पद संघर्ष और निर्माण की।
जुल्म शोषण के खिलाफ लड़ाई है,
अधिकार की स्वाभिमान की।
चाह नहीं थी इतने की,
पर जिम्मेदारी खुब निभाता हूं।
मैं यूं ही नहीं . . . . . .