मैं मुहब्बत के काबिल नहीं हूं।
मैं हूं पतझड़ से गिरता महज पर्ण सा,तेरे ख्वाबों का साहिल नहीं हूं ।
मेरी मंज़िल है आगों से लिपटी हुई मैं मुहब्बत के काबिल नहीं हूं।
मिन्नते आरजू छोड़ दो,,तुम हो दरिया हसीं ख़्वाब की….
तुम मेरी मस्ती की चाह रख, मैं उदासी के काबिल नहीं हूं…..
मेरी धड़कन की चाहत सुनो,वो धड़कता है किसके लिए….
आ रही है यतिमों की लश्कर,मैं लतीफों की मंजिल नहीं हूं।
हो सके तो मेरे इश्क में,तुम भी अदना ग़ज़ल कह सको….
मैं हूं रुत ए गम ए इश्क़ सा,मैं धुआं कोई मुस्तकिल नहीं हूं।।
इश्क़ की यह कहानी सुनो,मुब्तिला था कभी प्यार से….
मैंने मांगा था जिसको यहां,सच में उसके ही काबिल नहीं हूं।
लोग डरते हैं मुझसे बहुत,खुद की रक्षा गुनाह हो गई….
मिल गई उम्रभर की सजा,वरना तो कोई कातिल नहीं हूं।
दीपक झा रुद्रा