मैं मर्यादित नहीं …
मैं मर्यादित नहीं
मैं इज्जतदार भी नहीं
मैं बस भूखी हूं
और जरूरतमंद भी
तुम अपनी मर्यादा की पाठशाला
कहीं और जाकर चलाओ
कंठ तक अन्न को ठूसने वाले लोग
अताडियों के सूख जाने को
क्या ही समझोगे
झूमरों की रौशनी से चूंधियाए आंखों से
ढिबरी की कालिख में
मलीन मुंहो का …
दर्द से जर्द हो जाने को
क्या ही पढ़ोगे…
देना ही हो गर तो …
आओ दो जून की रोटी दे जाओ
तन ढकने को लत्ता कपड़ा दे जाओ
नहीं तो …
अपने मुंह के गटर को बन्द रखो
और हमारे आंखों से बहते
मर्यादा और इज्जत के
संगम में डुबकी लगा जाओ…
~ सिद्धार्थ