मैं मजदूर हूं साहब
मैं मजदूर हूं साहब
मेरा नक्स हर ज़र्रे में नजर आएगा
खाओगे काजू की रोटी या
बजाओगे मन्दिर का घंटी
हर ज़र्रे में मेहनत मेरा नुमाया हो जाएगा
मैं मजदूर हूं साहब
नाम नहीं चेहरा नहीं
इतिहास में दिखता मेरा छाप गहरा नहीं
भविष्य अंधकार में है दिखता सुनहरा नहीं
पर सदियों से सदियों तक
सुई से लेकर रसोई तक
हल से लेकर महल तक
मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर से गुरुद्वारे तक
हम से ही अस्तित्व में आएगा
बिन हमारे सवर्ण भी आकार न पाएगा
हम मजदूर है साहब
कहो हक हमारा कब तक मारा जाएगा ???
~ सिद्धार्थ