और कितना धैर्य धरू
और कितना धैर्य धरू,
और कितना धैर्य धरू ,
गर्भ से लेकर मरने तक
हम स्त्रियाँ धैर्य ही तो रखती आई हैं।
जब माँ के कोख में भी रहती हूँ,
फिर भी कहाँ सुरक्षित रहती हूँ ।
हर दिन हर एक पल कोख में भी
डर-डरकर ही तो जीती हूँ।
फिर भी धैर्य बनाकर मैं खुद को रखती हूँ।
शायद इस बार हमें नही मारा जाएगा,
शायद इस बार इस संसार में
हमें भी आने दिया जाएगा।
इस उम्मिद को अपने अन्दर जगाकर ,
धैर्य ही तो रखती हूँ मैं।
आते ही इस संसार में,
जब सुनने को यह मिलता है।
बेटी हुई है एक बोझ और बढ़ गई ,
यह सुन मन विचलित होता है,
फिर भी धैर्य ही तो रखती हूँ मैं।
यह सोचकर की शायद माँ-बाप
कुछ समय बाद मुझसे
प्यार करने लगेंगे।
मेरे किलकारियों के साथ
वो भी हँसने लगेंगे।
मेरे डगमगाते कदम पर
वो मेरा हाथ थाम लेंगे ।
मेरी तोतली आवाज सुनकर
माँ की ममता जाग जाएगी।
पर कहाँ मेरे साथ ऐसा हो पाता है!
मैं उनके नजरो में बोझ ही
तो होती हूँ,
और होती हूँ पराया धन उनके लिए ।
जिसे किसी और के घर जाना होता है,
कहाँ अपने होने का मुझे
एहसास कराया जाता है।
और कहाँ मुझे बेटो की तरह
प्यार से पाला जाता है।
इसके बाद भी तो मैं उस घर में,
धैर्य के साथ बनी रहती हूँ ,
माँ-बाप के आगे पीछे घूमती रहती हूँ,
कि शायद उनकी नजरों में
मेरे लिए भी प्यार जाग जाएगा,
और दो बोल मेरे साथ भी
वो प्यार से हमसे बोलेंगे।
इस उम्मिद को जगाए हुए
मै धैर्य ही तो रखती हूँ।
पर ऐसा होता नहीं हैं
और मैं धैर्य के साथ,
जिन्दगी को ऐसे- तैसे ही
काटती जाती हूँ,
और एक बार फिर इस
पराया धन को,
पराये हाथों के बीच
भेज दिया जाता है।
उस समय भी मैं धैर्य को
बनाकर ही तो रखती हूँ।
शायद यह घर मुझे अपना ले ,
पर कहाँ हमारी किस्मत
बदल पाती है,
और वह घर भी मुझे कहाँ
अपना पाती है।
उस घर के लिए भी तो मैं पराया,
हिस्सा ही बनकर रह जाती हूँ।
मैं इनसे क्या शिकायत करूं,
जब मैं जिसका खून थी,
उसने ही मुझे पराया
मान लिया था।
तो इनके लिए मैं पराया
पहले से थी।
मै अपने वज़ूद को तलाशती हुई,
धैर्य के साथ इस घर में भी बनी रहती हूँ,
शायद इस उम्मिद के साथ की,
मै इन्हें प्यार करूँगी ,
तो मुझे भी प्यार मिल जाएगा।
पर ऐसा मेरे साथ कहा हो पाता है।
मैं कहाँ उस घर का हिस्सा बन पाती हूँ
कभी दहेज के नाम पर, तो कभी
सुन्दरता के नाम पर या अन्य कारण
से रोज ही प्रताड़ित होती रहती हूँ।
फिर भी धैर्य बनाकर रखती हूँ।
आय दिन समाचार का
हिस्सा भी तो मैं ही होती हूँ।
कहीं बच्चियों के साथ
बलात्कार हुआ है,
तो कही अधेर उम्र की
महिला के साथ,
कहीं बुढी औरत को भी
नही छोड़ा गया है।
यह सब देख – सुन,
खुन खौलता है,
फिर भी धैर्य ही तो रखती हूँ।
किसी के साथ वर्षो से
शोषण होते आ रहा था,
किसी को विवश कर दिया गया
आत्महत्या के लिए,
किसी लड़के ने किसी लड़की
को छेड़-छाड़ की है,
यह सब खबरे आय दिनो की
मेरी हो गई है।
फिर भी मैं धैर्य ही तो रखती हूँ।
वहाँ बहुए जलाई गई है,
वहाँ बेटी दफनाई गई है,
वहाँ किसी लड़के ने किसी लड़की
पर तेजाब फेक दिया है,
यह सब मैं ही तो सहती हूँ।
फिर भी मैं धैर्य रखती हूँ।
कितने बार मैं टूटी ,
कितने बार बिखरी,
कितने बार मौत के गोद में
जाकर सो गई,
न जाने कितने बार धैर्य रखी,
इसका हिसाब-किताब नही
लगाया जा सकता है।
पर अब मैं पूछना चाहती हूँ ,
माँ-बाप से और समाज से
की मैं और कितना सहूँ ,
और कितना धैर्य रखू ,
और कितना धैर्य धरू।
और कितना धैर्य धरू।
~अनामिका