मैं बैठ देखती रही
मैं बैठ देखती रही..
किनारे बैठ उसके अस्तित्व को
उसके निरन्तर बहने की क्रिया को
लगा जैसे चेतना हो उसमें क्योँकि
वह बह रहा था एक संतुलन से उसमें
आरुषि की प्रथम किरण मानो स्वर्ण सा
बिखेर रही हो और उसकी उठती लहरे
किनारे से टकराने से लगा जैसे
इंदुकला निर्निमेष भाव से
धरती पर आनंद फैलाने स्वयम ही उतर आई हो
प्रकृति की सुखद छटा सुख की अनुभूति देती हैं
मैं बैठ देखती रही..
किनारे बैठ उसके अस्तित्व को
कितना हर्ष- उल्लह्वास मन मे होता हैं ये सुहानी छटा देख
आत्मा भाव तरंग रूप में उठते हैं मन को हर्षित करते है
अल्हड़ औ मगन चलता पानी अपनी गति लिए
चलता जा रहा हैं गन्तव्य पर स्वयम में अभिन्नता लिए
तटबन्धों की सीमा में भी निर्बाध चलती हुई
मन को हर्षित करती चलती हैं मानो दुख देने को ही
आविर्भाव हुआ हो कितनी सहज और निर्द्वन्द्व बहती हैं
पवित्र जल धारा स्वयम में जैसे पूर्ण ज्ञानमय हो
सहसा विचार आनंदित करते हैं और चलते हैं
मैं बैठ देखती रही..
किनारे बैठ उसके अस्तित्व को
उसकी सीमाओ में भी उल्ह्वास,हर्ष,मोद की अनुभूति
लगता हैं क्या संभव है पानी को बंधनों की गति में बांधना
क्या संभव है उसकी चिन्मयता को जीवन से अलग देखना
मैं देखती रही उसको दूर तक चलते हुए
बहती नदी की धारा को अविरल भाव पूर्ण रसास्वादन लेते
किनारो पर टकटकी लगाए देखती रही उसको निर्बाध
शांत भाव से मैं वही प्रकर्ति को धन्यवाद देती रही
उसकी कृति को उसकी देने की प्रकृति को
मानो मेरे मन को झकझोर दिया उसने अपने
निर्बाध बहती गति से न रुकने का सबक मिला