मैं बारिश में तर था
शहर में उस रोज बारिश थी
और मैं बारिश में तर था
रिस गई सारी कड़वाहट हृदय की
ओर मैंने उस दिन भूला दिया उस
गम को
पल को
लफ्ज़ को
ओर स्वयं से मिला
स्वयं के लिए मिला
स्वयं से स्वयं की दूरी
जो सहसा अकारण हो चली
वक्त की रफ्तार की धार से
तो एक निश्चय कर
चयन किया
एकांत की यात्रा का
जिसमें मैं ही चुनौती बन रहा था
स्वयं के विस्तार का
तो ये यात्रा जो
स्वयं की खोज की है
स्वयं को आलिंगनबद्ध कर लेने की
स्वयं को पथ पर लाने की है
स्वयं को उन तमाम
झंझावातों से मुक्त करने की है
जो अनगिनत समय से
चल रहे थे हृदय के
अन्तर्मन में
सुशील मिश्रा (क्षितिज राज)