मैं प्रभु का अतीव आभारी
मेरी काया हुई कुंदनी,
रोग न मुझे सताते अब।
भांति-भांति के सद्विचार ही,
मुझको बेहद भाते अब।।
पढ़ता हूॅं मैं आर्ष ग्रन्थ अब,
सन्तों के प्रवचन सुनता।
प्रवचन का निहितार्थ समझकर,
उसको मन-ही-मन गुनता।।
बदल गई मेरी दिनचर्या,
मुझमें अब न बुराई है।
घनीभूत होती जाती अब,
जीवन में अच्छाई है।।
माया मेरे निकट न आती,
रावण मुझे न छू पाता।
परमात्मा की अनुकम्पा से,
मेरा यश बढ़ता जाता।।
मैं प्रभु का अतीव आभारी,
उनका वंदन करता हूॅं।
करके उनकी याद पद-कमल,
पर सविनय शिर धरता हूॅं।।
महेश चन्द्र त्रिपाठी