मैं तो प्रकृति हूं
पहिचानिए मुझको सभी मैं तो प्रकृति हूं
मैं ही सबका जीवन और सबकी मृत्यु हूं
राग द्वेष मोह माया सभी से मैं उन्मुक्त हूं
इस अनन्त का मैं ही तो अन्तिम सत्य हूं
***
जल से लेकर आकाश तक अधिपत्य हूं
सागरों की लहरों में करती मैं तो नृत्य हूं
वन उपवन बहारों की तो अभिव्यक्ति हूं
मैं जीवधारियों की बराबर की संपत्ति हूं
***
मानव अन्त:करण की मैं तो आसक्ति हूं
मैं विरह वेदना बिखरावों की आकृति हूं
प्रेम-प्रतीति प्रीति-रीति की पुनरावृति हूं
चेतन अचेतन चित्त की मैं तो जागृति हूं
***
चमत्कारी समूची सृष्टि की मैं उत्पत्ति हूं
अनूठी अलौकिक और अनुपम कृत्य हूं
सब की अभीष्ट उत्कृष्टों में तो उत्कृष्ट हूं
अनूदित आकलन की मैं दूर की दृष्टि हूं
***
मैं ही तो तप-त्याग वैराग्य व विरक्ति हूं
निराकार साकार रुप दोनों में संयुक्त हूं
प्रकाश पुन्ज पाने की मैं ही तो युक्ति हूं
उठाना धरा का भार मैं अकूत शक्ति हूं
***
स्वार्थ-सिद्धि युक्त मनुष्य मैं विक्षिप्त हूं
क्रूर-कृत्यों के विरुद्ध दर्ज मैं आपत्ति हूं
विनाशकारी प्रलय की मैं तो विपत्ति हूं
व्याकुल-व्यथित हूं मैं ही तो प्राकृति हूं
***
-रामचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’