“मैं तुम्हें फिर मिलूँगी”
कब ,कहाँ और कैसे,
पता नहीं…??
किसी शाम,दरिया किनारे
शान्त,शीतल,निर्मल जल में
पैर डाले घुटनों तक
खुद की परछाई से
बात करती
या तुम्हारे पुराने तैरते उन्हीं
अक्स को आज भी
उसी पानी में मछली सी पकड़ती
पता नहीं…?
या खुले आसमाँ वाले
छत के
किसी कोने में उदास बैठी
सितारों से भरी
पूनमी चांद को निहारती
दूधिया रातों में क्षारीय अश्क़ो
को आंचल के दोंने में भरकर पीती
पता नहीं ….?
जेठ दुपहरी में
शर्म से दहकते
किसी गुलमोहर की छाँव तले।
रोपती तेरी
यादो की पुऱवाइयाँ
और तुम्हारे इन्तजार में गाते
पत्तों और टहनियों के
मंगल गीत वाले
उस पीपल चौरा पर
अर्घ्य चढ़ा करती हुई तुम्हारे ही
जीवन की मंगल कामना
पता नहीं…..?
या फिर
रिमझिम बारिश में भीगती
किसी रात
मदहोश कर देने वाली
रातरानी की महक से सराबोर
खिलती कलियों के आगोश में
सिमटती ,
पता नहीं ….. ?
किसी मन्दिर की सीढ़ी पर
घन्टी बजा
ड्योढ़ी पर माथ नवा कर
ईश्वर से आशीष में सिर्फ तुम्हें मांगती
या फिर किसी दरगाह पर
मन्नत के धागे में तुम्हारा दिया
अपना वो कुवाँरा इश्क़ बांधती
और दुआ की ताबीज से
दिल के जख्मों को सहलाती
“मैं तुम्हें फिर मिलूँगी”
कब कहाँ और कैसे …..
पता नहीं…….????
किरण मिश्रा “स्वयंसिद्धा”
नोयडा