मैं तुम्हारे ख्वाबों खयालों में, मद मस्त शाम ओ सहर में हूॅं।
गज़ल
11212/11212/11212/11212
मैं तुम्हारे ख्वाबों खयालों में, मद मस्त शाम ओ सहर में हूॅं।
मुझे क्या पता तुम हो कहां, पर मैं तुम्हारी नज़र में हूॅं।
मैं धरा भी हूं, मैं गगन भी हूं, मैं हवा भी हूं, तुझे क्या पता।
मैं जमीं के कण कण में बसा, मैं ही फूल फल व शज़र में हूॅं।
मैं ही काफिया हूॅं, रदीफ हूॅं, मुझे मतला मक्ता समझ लें तू,
मैं ग़ज़ल का इल्मे अरूज हूॅं, मैं ही रुक्न में हूॅं, बहर में हूॅं।
मैं हूॅं जीत के हर रूप में, मैं ही हार के हर दर्द में,
मैं खुशी का नगमा निगार हूॅं, मैं दुखों से बरपे कहर में हूॅं।
मैं ही इश्क़ का इक नूर हूॅं, मैं ही हुस्न का भी गुरूर हूॅं,
मैं ही शम्मा हूॅं इक प्यार की, जले प्रेमियों के जिगर में हूॅं।
………✍️ सत्य कुमार प्रेमी