मैं चट्टान हूँ खंडित नहीँ हो पाता हूँ।
समुद्र तट पर पड़ी हुई चट्टान हूँ
हर क्षण लहरें आती हैं,
कोई बलशाली, कोई क्षीण,
आकर मुझसे टकराती हैं।
सहता हूँ धीरज से, मानव-सा बनकर,
उस पीड़ा को, जो लहरें लाती हैं।
वे चाहती हैं मुझे खंडित करना,
पर हर बार निराश लौट जाती हैं।
जलधि जल के ऊपर रहता हूँ मैं
कुछ क्षण को ओझल भी हो जाता हूँ
क्षणभर में लहरों को विछिन्न कर,
फिर से दृष्टि में आ जाता हूँ।
नहीं डरता मैं इन लहरों से,
अब आदत हो गई है सहने की,
क्या होगा डर से जीने का,
इसलिए नहीं करता कोशिश बचने की।
वो लहरें जो अपने वजूद को भूली,
आकर अपनी शक्ति दिखाती हैं,
पर मैं हूँ स्थिर, अडिग, अचल,
लहरें मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाती हैं।
तीनों मौसमों की मार सहता हूं जरूर
सुनामी की चोट भी सह जाता हूँ,
फिर उठ खड़ा होकर अपने दम पर
अपने अस्तित्व को दुहराता हूँ
मैं चट्टान हूँ खंडित नहीं हो पाता हूँ