मैं क्यों अब जाऊँ मधुशाला
अनुपम शिल्प कला कौशल से,
प्रस्तर तल पर निर्मित आकृति,
मानो बोल पड़ेगी पल में,
प्राकृतिक ऐसी बाला सुकृति।
रूपराशि यौवन अतुल्य,
उस शिल्पकार की कलाकृति,
चैतन्य विना भी मृदु सजीव,
होती प्रतीत सुरबाला सी।
पाषाण कृति के नयन युगल,
मदभरे चारु वाचाल तनिक,
प्रत्यंचावत तिर्यक भृकुटि,
मनमोहक छवि मृगनैनीवत।
नयन युगल अदभुत कृति के,
प्रतिपल छलकाते शुचि मदिरा,
हाला के मधुरस पान हेतु,
मैं क्यों अब जाऊँ मधुशाला।
–मौलिक एवम स्वरचित–
अरुण कुमार कुलश्रेष्ठ
लखनऊ (उ.प्र.)
(अरुण)